धर्मयुद्ध / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'
छटी इंद्रिय से प्रेरित
हिम्मत कर
उसने कहा कि
यह राक्षस है
पर उसको कहा गया
नहीं ये मेरा देवता है
मानो तुम भी
नहीं तो
पतिव्रता स्त्री के
पद से ठुकरा दी जाओगी
ये वहीं हैं
जो मुँह में ज़ुबान रखतीं हैं
पर कटी हुई
देखतीं हैं उन देवताओं को
और चढ़ा लेतीं हैं चश्में
गांधारी की तरह
ये रोज़ पूजतीं हैं
आद्या शक्ति को और
छोड़ आतीं हैं
सारी हिम्मत उनके भरोसे
बचा लें वो
उनकी बच्चियों को
वो जोड़ती है
तमाम उपलब्धियाँ
और पिछड़ जातीं हैं
असली सम्मान से
तलाशती हैं ग्लोबल
होने के सुनहरे गीत
इनके कलम की स्याही
कभी नहीं
उगलती विरोध के अक्षर
वो ख़ुश हैं,
अखबार में
छपतीं हैं अक़्सर
वो नहीं पायेंगीं
समानता कभी भी
कारण है
वो नहीं लड़तीं
राक्षसनियों और राक्षस से
वो गरियाती हैं
पुरुषजाति पर
अपना आधिपत्य जताने
और
उनकी जैसी होती जातीं हैं
कुछ औरतें जो
बुद्धिजीवी कभी नहीं कहलाईं
जूझ गईं उन मुद्दों पर
जो हमारे लिए गैरज़रूरी थे
लोटा लेकर जाना हो या
धुत्त पति से पिटना
उन्होंने बुलन्द की आवाज़
थाम लिए हौसलें
जानती हूँ
हम जैसी
बुद्धिजीवी औरतों!
हमारा आवाहन सरल नहीं
फिर भी बच्चियों की
आर्द्र पुकार को
सुनने की
श्रवन शक्ति हेतु
विशेष यज्ञ को आहुत
करना ही होगा
बच्चों को बचाना ही होगा
समाज के तथाकथित
भेड़ियों से
जिन्हें हमारा अपना भी
उन्हें देवताओं की
श्रेणी में रखता है
इसके लिए
तुम
किसी शक्ति के
अवतार लेने का
इंतज़ार मत करो
हमें लड़ना नहीं हैं
लड़ाई के विरुद्ध
हमें तो
खड़ी करनी है
अपने नवांकुरों में
इन्सानियत को
सहेजने की फ़ौज
बुद्धिजीवी औरतों!
समझो और समझाओ
उन्हें भी जो
बुद्धिजीवी नहीं हैं
ये धर्मयुद्ध
अब
नफ़रत से तो न जीता जाएगा!