(राग माँड़-ताल कहरवा)
धर्म करता है चित पवित्र। धर्म देता है उच्च चरित्र॥
धर्म है सदा सभीका मित्र। धर्म देता है फल सुविचित्र॥
धर्म करता विपत्ति का नाश। धर्म करता सब पाप-विनाश॥
धर्म करता विज्ञान-प्रकाश। धर्म भरता जीवन-उल्लास॥
धर्म ही है सबका आधार। धर्म ही है जीवनका सार॥
धर्म करता सबका उद्धार। धर्म ही है विशुद्ध आचार॥
धर्म हरता माया-तम घोर। धर्म फैलाता द्युति सब ओर॥
धर्म रखता नित पुण्य-विभोर। धर्म देता सुख दिव्य अछोर॥
धर्म हर लेता कलह-क्लेश। धर्म हर लेता राग-द्वेष॥
धर्म हरता हिंसा निःशेष। धर्म उपजाता दया विशेष॥
धर्म हर लेता सारी भ्रान्ति। धर्म हर लेता मोह-अशान्ति॥
धर्म हर लेता सारी श्रान्ति। धर्मसे मिलती शाश्वत शान्ति॥
धर्म करता न कभी गुमराह। धर्मसे बढ़ती साविक चाह॥
धर्म हर दुःखोंकी परवाह। धर्म करवाता त्याग अथाह॥
धर्म से मिलते इच्छित काम। धर्मसे मिलते अर्थ तमाम॥
धर्म से मिलता पद निष्काम। धर्मसे मुक्ति-लाभ सुख-धाम॥
धर्म में सहज अहिंसा-सत्य। धर्ममें सदाचार सब नित्य॥
धर्म में रहते गुण संचिन्त्य। धर्ममें मिटते भाव अनित्य॥
धर्म में नहीं नीचतम स्वार्थ। धर्मका लक्ष्य एक परमार्थ॥
धर्म में सफल सभी पुरुषार्थ। धर्ममें पूर्ण ब्रह्मा एकार्थ॥
धर्म में नहीं कुमति को स्थान। धर्म है विमल बुद्धिकी खान॥
धर्म से होता नित्योत्थान। धर्मसे मिलते श्रीभगवान॥
धर्म कर अघका सहज अभाव। धर्म उपजाता पावन भाव॥
धर्मसे बढ़ता सेवा-भाव। धर्मसे बढ़ता भगवद्भाव॥
धर्म कर दिव्य विवेक-विकास। धर्म करता त्रिताप का नाश॥
धर्म उपजा प्रभु-पद-विश्वास। धर्म कर देता प्रभुका दास॥
धर्मसे मिलता अचल सुहाग। धर्म कर देता शुचि बड़भाग॥
धर्म उपजाता विषय-विराग। धर्म देता प्रभु-पद-अनुराग॥