धर्म का संकट कहें या धर्मसंकट / यश मालवीय
धर्म का संकट कहें
या धर्मसंकट
बहुत मुश्किल में फँसी है ज़िन्दगी
हर तरफ़ पहचान खोती रोशनी
ढह रहे हैं क़िले गुम्बद हर तरफ़
बोनसाई हुए बरगद हर तरफ़
आदमी औ ' आदमी के बीच में
खींच दी किसने ये सरहद हर तरफ़
धर्म का संकट कहें
या धर्मसंकट
नाचती निर्वसन होकर तीरगी
सिर धुने लाचारगी - बेचारगी
पाँव में औ ' जीभ पर छाले पड़े
कौन बोले , शब्द के लाले पड़े
देखने की बात कैसे हो कहीं,
भोर की भी आँख में जाले पड़े
धर्म का संकट कहें
या धर्मसंकट
हर कहीं है दर्द की रस्साकशी
कील कोई कहीं मन ही में धँसी
सभ्यता के नाम पर है सनसनी
मूर्तियाँ हैं कुछ बनी , कुछ अधबनी
ख़ुशबुओं का नामलेवा कौन हो
हर तरफ़ चलती हवाएँ अनमनी
धर्म का संकट कहें
या धर्मसंकट
रेत की मछली हुई है हर नदी
होंठ सूखे , साँस लेती तिश्नगी