धर्म की धुन / हरिऔध
है पनपने फूट को देता नहीं।
धर्म आपस में करा कर संगतें।
है बढ़ाता पाठ बढ़ती के पढ़ा।
है चढ़ाता एकता की रंगतें।
धर्म है काम का बना देता।
काहिली दूर काहिलों की कर।
खोल आँखें अकोर वालों की।
कूर की काढ़ काढ़ कोर कसर।
धर्म की चाल ही निराली है।
वह चलन को सुधार है लेता।
है चलाता भली भली चालें।
वह कुचल है कुचाल को देता।
काढ़ता धर्म उस कसर को है।
ध्यान जो नाम का नहीं रखती।
काम उस का तमाम करता है।
जो 'कमी' काम का नहीं रखती।
धर्म ने उस के कसाले सब हरे।
हैं सुखों के पड़ गये लाले जिसे।
है वही पिसने नहीं देता उन्हें।
पीसते हैं पीसने वाले जिसे।
जो दोहाई न धर्म की फिरती।
तो बिपत पर बिपत बदी ढाती।
काट तो काटती कलेजों को।
चाट तो चाट और को जाती।
धर्म की देखभाल में होते।
है बहक बेतरह न बहकाती।
है बुराई नहीं बुरा करती।
पालिसी पीसने नहीं पाती।
धर्म के चलते सितम होता नहीं।
जाति कोई है नहीं जाती जटी।
धूल झोंकी आँख में जाती नहीं।
धूल में जाती नहीं रस्सी बटी।