धर्म था उनका / हरीश भादानी
धर्म था उनका
मुझे निकट रखना
निभाया भी
पर पुजारी
तो बने ही रहना था उन्हें
कैसे होने देते हिस्सा
मुझे अपनी छाया का
कुंती नहीं रही
मेरे होने का कारण
राधा भी नहीं थी परोटने वाली
धाय भी नहीं थी
छांट-छींटों से ही
हो गया खेजड़ा मैं
किससे जुडूं मैं
किससे जुड़ो तुम
उगे ही नहीं ऐसा कुछ
ऊसर ही रखी गई जमीन
और जोड़ दिया तुम्हें मुझसे
मैंने ही दिया
देता ही गया तुम्हें
मेरे मैं का
मेरा साथ होने का वास्ता
कि दिया गया सब कुछ
घर नहीं गोदाम है
सील गई गांठों का
तुम्हारा भी हक बनता है जिन पर
वह तो
स्वाहा-स्वाहा के साथ
सुनाया गया था न तुम्हें
फिर फैशन भी नहीं की तुमने-
पूछ ही लेती मुझसे
यह पिरोल
ये किनारी-तोड़
ये बहियां यह बंदोबस्त
कचरा क्यों है.....
पर तुम तो
मेरी मुट्ठी में कसी
बीटली से लगी गांठ जो रही
कैसे खुलती
फिर मैंने
खुलने ही कब दिया तुम्हें
कह दिया जो भी मैंने
तुलछी मान लिया तुमने
दे दिया मुझे
हजार हां का
अंगूठा ठाप कर पक्का दस्तावेज
बस बाहर ला-लाकर
गोदाम तोड़ा किनारी बहियां
लगा गया बटने
और-और चीजों से
वह तो बदहजम की
बीमार होकर
डचके थूकने लगी हो जब से
तब से ही
लगने लगा है
चीजें नहीं कपूर था
लाता रहा हूँ जो कुछ
हो गया है भक्क
दूर से ही देखकर आग
देखी है मैंने
जले पान सी हथेली थाली
कई-कई बार
चेहरे पर मांडण हो गया धुंआ
हाथ का ही नहीं
समझ का भी कारीगर हूँ न
अंदेखा किए रहा हूँ
तुम्हारे दूधदार टोपियों तले
चेंटी पड़ी कल्मष
खांसी के धक्के
खा-खाकर
बाहर आ पड़े लेवड़े
अब तो थमाता भी हूँ कभी
चिमटी भर कपूर
उधर ही किए रहता हूँ आंखें
कड़ियल जवान हो गया
तुम्हारा चुप
पूछ न ले
अलफी झंझोड़ कर मुझसे-
तुम तुम्हीं हो न वह मैं
नहीं होने दिया इसे
अपने जैसा ही मैं
रु-ब-रु जो हो जाता
थमा दिया करता
बोरसी हांडी माचिस
बंद कर लिया करता किवाड़
सच ऐसे सोच से ही भाग
जा धंसता हूँ
बन गए कागज के गोदाम में
और कारियां लगा किवाड़ थामे
सुनती हो एकालाप
देख कर तुम्हें
फिर न देने लगूं कोई और वास्ता
रखदी है सामने आज की डाक
अक्टूबर’ 79