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धर्म रथ / संजीव 'शशि'
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कलियुग में आकर मनमोहन,
सोचे खड़े-खड़े।
धर्म के रथ पर कौन चढ़े ?
बदला-बदला लगता है सब।
कहाँ भीम, अर्जुन से हैं अब।
ढुलमुल-सी सबकी निष्ठाएँ-
कब पाण्डव बन जाएँ कौरव।
यहाँ धर्म की ध्वजा थामने,
आगे कौन बढ़े ?
भौचक्के से हैं मनमोहन।
भ्रष्टाचार यहाँ अब पावन।
यह तो शिष्टाचार हुआ है-
जो धनवान उसी का वंदन।
ऐसे में गांडीव थाम कर,
भू पर कौन लड़े ?
दूषित यहाँ व्यवस्था सारी।
दु:शासन जैसी व्यभिचारी।
नारी अब भी वस्तु सरीखी-
गली-गली तन के व्यापारी।
नैतिकता अपनी परिभाषा,
प्रतिपल नयी गढ़े।
किसको फिर उत्थान चाहिये।
फिर खोया सम्मान चाहिये।
निज गौरव सब भुला चुके हैं-
किसको गीता ज्ञान चाहिये।
उत्तर की कर रहे प्रतीक्षा,
अगनित प्रश्न पड़े।