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धागे / शचीन्द्र आर्य
Kavita Kosh से
गर्मी की दुपहरों में जब कभी
एक चींटा दूसरे चींटे को खींच कर ले जाते हुए दिखता है,
तब लगता है, उनमें बची रह गयी हैं कुछ नमी।
कुछ स्मृतियाँ। कुछ स्वप्न।
उनमें बची रह गयी हैं, एक साथ चलने
और उसमें खो जाने पर भी वापस लौट आने की संभावना।
उनमें बचे रहते हैं धागे। कुछ कमजोर और कुछ मज़बूत।
वही रचते हैं, पीछे वापस लौटा ले जाने वाली लीक।
सोचता हूँ,
मेरे पास भी बचे रहते कुछ ऐसे धागे, ऐसे रास्ते
जहाँ भीतर लौटते चींटे की तरह मैं भी लौट पता।