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धानोॅ के गम्हड़ फूटतै हे / अनिल कुमार झा

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आरी पर चलै छै किसनमा कि मने मन मुस्कै हे
देने जाय हंकारोॅ कि धानोॅ के गम्हड़ फूटतै हे
अबकी जे विहोॅ बान्इलकै धानोॅ के रंग बदललै हे
चारोॅ दिस हरसित घास दूव रे चिड़ियोॅ चहकै हे
मन मैना बनी ठकुराइन नेग लेली हाथ बटावै हे
कहूँ गाछी उछलै छै सुग्गा कि हम्में तेॅ सोहर गैबै हे
आरी पर ऊपर अकास में ताड़ के पात मुड़िया डोलाबै हे
रही रही आबै बयाँ केरोॅ नीड़ हिलाबै है
अबकी जे एही पलना झूलतै हेमंत रही-रही हाँसतै हे
अबकी ते पंडित ठाकुर मिली-मिली भाग के बाँचतै हे।