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धान के रंग / बैद्यनाथ पाण्डेय ‘कोमल’
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वाह! धान पर कहाँ से
रंग धानी आ गइल रे?
नाच के ढुम-ढुम बिहँस के
आज मन बिहँसा गइल रे।
दूर कोना से कहीं
कातिका मधुर बा गीत गावत;
बरस भर के सो रहल जे प्रीत,
ओकर बा जगावत;
दउरि धानन पर कहीं से
अब जवानी आ गइल रे।
चिहुँक के जागल बतासी
पा हवा के गुदगुदाहट;
हो गइल मदभोर पी के
आज परदेशी के आहट;
अहा! रग-रग में
बराँटी के पियास समा गइल रे।
देख अगहन के अगहनी
पट हटा के झांक लेलस;
बा कहाँ तक प्रीत पी के
तनिक भर में आँक लेलस;
देख साजन साजनी के
नयन कोर अघा गइल रे।
रे महीका के महानी पर
नजर बा बिछिल जाता,
केश पतइन के सँवारे
अब हवा पर बहल जाता,
अन्नपूर्णा देख आपन रूप् के
अचका गइल रे।
वाह! धान पर कहाँ से
रंग धानी आ गइल रे?