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धाम और धरा / अमरेन्द्र

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साथी, चाँद सितारों के घर जाना बहुत हुआ
नभ की नभगंगा के भीतर तैरे-रुके बहुत
धरती की-सी मिली वहाँ क्या, आती-जाती रुत
या तुमको ही देख चकित थे हारिल-काग-सुआ ?

क्या ऐसी ही पुरवा-पछुआ तुमको मिली हवाएँ
दखनाहा की शीतल साँसें चन्दन वन से आतीं
अलसाई निद्रा में डूबी जग भर को भरमातीं
कैसे-कैसे राग मधुर में गाती खिली हवाएँ ?

वहाँ गये तो दुबला कर के लौटे हो यूँ मीत
मैंने सुना, वहाँ अमृत का झरना ही बहता है
देव वहाँ पर देवी सब के बीच घिरा रहता है
फिर क्यों लौटे हो चेहरे पर लिए हुए यह शीत ?

ऊपरवाले नीचे आए, तुम ऊपर को जाते
देख-देख कर मेरे हारिल-काग-सुआ शरमाते ।