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धारावाहिक 1 / वाणी वंदना / चेतन दुबे 'अनिल'
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देवि! ब्रह्म लोक से उतर कर आज मेरे ,
श्वेत दृग-पंकजों में आसन लगाती आ।
कंठ पे विराज के बिछा दे शब्द-जाल और
रसना से अविराम उनको बहाती आ।
अपने मराल से माँ! मेरे मंजु मानस के
अनुपम भाव मोतियों को तू चुगाती आ।
वरदे! विचारधारा कर दे कलामयी औ
पिंगल-पीयूष का पयोधि उमगाती आ।