भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धारोॅ के आर-पार / शिवनारायण / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आय एक दाफी फेनू
जीयै लेॅ चाहै छी
जिनगी के ऊ वक्ती केॅ
जेकरा कभिये नी भूली ऐलोॅ छियै
बियाबान वनोॅ में।

ई जिनगी सें हलकान होय केॅ
लौटे लेॅ चाहै छी पिछुलका वक्ती में
जेकरा पर कभियो
गाँव के पातरोॅ-साँकरोॅ एकपैरिया होय केॅ
हमरोॅ आरो ओकरोॅ गोड़
यक-ब-यक चल्लोॅ छेलै।

आय ऊ
प्रतीक्षारत आँखी सें
हमरा निहारै छै
शायत हम्में घुरिये जाँव।

हौं, हम्में घुरै लेॅ चाहै छी
ओकरोॅ प्रतीक्षारत आँखी में
मेघ बनी बरसै लेॅ चाहै छी

तबेॅ सें आय तक के ई चार सालोॅ केॅ
चाहै छी भूली जाँव
समय रोॅ ई निर्बाध गति में अवरोध बनी
हम्में ई चार सालोॅ केॅ बर्फ बनाय
बहाय दै लेॅ चाहै छी।

हौं,
हमरा बेचैन करलेॅ जाय छै
गाँव के ऊ साँकरोॅ-साँकरोॅ एकपैरिया
जहाँ सें पायल के रुनझुन में
ऊ हमरा हाँक दै रहलोॅ छै।
ऊ हमरोॅ नगीच छै।
एकदम नगीच
तहियो जेना कोसो दूर
बड्डी दूर छै।

समय
तोंय आपनोॅ अस्तित्व केॅ
आय हमरा भूली जाय लेॅ दा
नै रोकोॅ हमरा।
सुनोॅ
पायल रोॅ मतैलोॅ झंकार केॅ
मतरकि तोहें तेॅ निट्ठा जड़ छोॅ
तोहें की जानवौ
पायल के झनकार में छुपलोॅ
ऊ असहनीय व्यथा केॅ
जेकरा एकरस चार सालोॅ सें
चपोती केॅ ऊ गली रहलोॅ छै
जेना अभिसारिका
मिलै के किंछा में
तड़पी-तड़पी
मनोॅ के तार छेड़ी-छेड़ी
व्यथा-राग अलापी रहलोॅ छै।
ऊ आतुर
हम्में बेकल
आरो दोनों के मद्धेॅ
तोहें भाँगटोॅ नाँखि जलधारा लागौ
हौं,आय ऊ हौ पार छै
हम्में ई पार छी
दोनों के मद्धेॅ
समय रोॅ धार छै
केना मिलेॅ पारौं
जबेॅ दोनों दिशाहै
धारा के आर-पार छै।