भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धार कटकर पत्थरों के पार क्या जाने लगी / ललित मोहन त्रिवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धार कटकर पत्थरों के पार क्या जाने लगी !
वो नदी गुमनाम सी अब और इतराने लगी !!

बाँध ने रोकी तो ऊपर उठ गई मैदान में
जब गिरी तो छेद पैदा कर दिए चट्टान में
बाँध क्या ली है जरा, झरनों की पायल पाँव में
थी लचक पहले भी अब कुछ और बल खाने लगी
वो नदी ...............


चार नाले आ मिले हैं, इस भरी बरसात में
अब तो ये नदिया, नहीं रह पाएगी औकात में
तोड़कर अपने किनारे ही, उफनने क्या लगी ?
पाठ आज़ादी का वो , सागर को समझाने लगी
वो नदी ..............

इन हवाओं ने, अभी तो प्रश्न छेड़े ही नहीं
वो समझती है , समंदर में थपेड़े ही नहीं
एक बाधा पार क्या करली, बिना पतवार के
नाव छोटी सी , भंवर पर ही तरस खाने लगी
वो नदी ............