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धार हैं हम / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

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1.
धार हैं हम
रुकना हिस्से में नहीं आता
बहते रहना अनवरत
नियति है हमारी
कहीं स्थायित्व मिला तो
बहने की खुमारी में पता ही नहीं चला

2.
बहते रहने की जिद में
ऊबड़ खाबड़ रास्ते अधिक मिले
ढुलकते लुढ़कते
ख्वाहिश बरकरार रही मंजिल की
न दिल भरा न मंजिल मिली
हृदय से समतल की चाह
कब हो गए समाप्त
पता ही नहीं चला कभी

3.
लहरों के बहाव में
विद्रोह की स्वभाव में
कभी जुड़ा अलग हुआ कई बार

जुड़ने अलग होने की प्रक्रिया में
उम्र के इस पड़ाव तक
रास्ते मिले हैं बहुत
चाह सबसे जुड़ कर रहने की है
सब पर बराबर चलने की है

सब मुझे अपनाएँ
ये जरूरी तो खैर नहीं
मैं सब के हित रहूँ
कुछ ऐसा चाहता हूँ

4.
लहरों से कट जाने के बाद
कुछ मिल रहे हैं इधर
बिछुड़ रहे हैं बहुत
आँखें नम हैं
जो बिछुड़े हमारे अपने थे
मिल रहे हैं जो
न जाने कैसे होंगे लोगबाग

5.
अलग होने से गम तो है
खुशी भी है बहुत
इस अल्प समय के जीवन में
बहते हुए किसी और को
शीतल कर जाने की

कौन कहेगा आग को आग
इन दिनों के परिवेश में
समझेगा पानी को पानी ही
सोचता हूँ तो सिहर कर रह जाता हूं

हवाएं अचानक बदली हैं
खिलने की प्रक्रिया में चुभने लगी है धूप
मिट्टी जलने लगी है इधर
पानी में बुलबुले फूट रहे हैं कई दिनों से

कई दिनों से उलझे से हैं जन-जीवन
खौलने लगा है आसमान
तन-बदन कुछ के नहीं हैं कहने में जरा भी
जरा भी लोग नहीं चाहते शांत रहना कई दिनों से

इधर कई दिनों से समय नहीं है किसी के कहने में
अजनबी के-से हालात हुए हैं परिवेश के
घर, घर जैसा नहीं दिखा है
बाहर की हर चीज घर जैसी लगी है

ये समय ले-देकर कहने भर का समय है
पहले वाला समय नहीं रहा
प्रतिबद्ध होकर रहते थे जहाँ कुछ लोग
वही करते थे कहते थे जो कुछ व्यवहार में

कौन है जो करेगा वही कहता है जो कुछ
बड़बोलेपन में बड़े ही घमंड से
गलत को गलत कहेगा समझेगा सही को सही विवेक से
सोचता हूँ तो मौन रह जाता हूँ