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धिक्कार / कर्मानंद आर्य

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मुझे नहीं चाहिए किंगफिशर
गुदगुदाती देह
चमचमाती कार
मोहक बड़े स्तन
मुझे नहीं है कैलेण्डर का लालच
गोवा बीच का संधान
मैं कविता का आदिवासी
देर सवेर उगूंगा किसी पथरीली जमीन पर
वनफूल बन खिलूँगा
बंजर जमीन पर उगाऊँगा गुलाब
मुझे नहीं चाहिए राजकमल
मुझे नहीं होना तुम्हारे गमले की अकादमी
नहीं चाहिए साहित्यिक दाखरस
सीपी सी नाभि, लक्ष्मी अंकशायन
मुझे नहीं पढ़नी कविता शक्तिवर्धक खाकर
रसातल में रहकर मुझे बने रहना है आदिवासी
अपनी भुजाओं पर विश्वास है मुझे
मैं कविता का कर्ण
लिखूंगा किसी आदिवासी के अधिकारी होने को धिक्कार
जब वह भूल जाए आदिवासियत
आदमियत के चोले में बन जाए सांप
लिखूंगा जब कोई आदिवासियत के चोले में
बन जाए टट्टू और आँखों पर लगा ले जाबा
लोहे का बस उतना स्वाद पाए
जितना उसे चबा सके
लिखूंगा धिक्कार कविता के अखाड़े में
तुम्हारे कारण ही डूब रही है दुनिया
तुम्हारे कारण डूब रहा है आकाश
और धुंधलके में तुम मदिर मदिर हँस रहे हो
धिक्कार!!!!