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धीरज ठहर सका न दिले-बेक़रार में / कांतिमोहन 'सोज़'
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धीरज ठहर सका न दिले-बेक़रार में I
ऐसी चलाचली थी तेरे इन्तज़ार में ।।
ले हमने आस्तां से तेरे सर उठा लिया
अब देख क्या बचा है तेरे इख्तियार में I
पुर्सिश से उसकी और मेरा दर्द बढ़ गया
ऐसी सलाहियत थी मेरे ग़मगुसार में I
इस दिल को तेरी याद से बेगाना कर सके
इतनी कशिश कहाँ है ग़मे-रोज़गार में I
बीमार थे पे खूब थी जीने की कामना
होगी यहीं कहीं इसी गर्दो-ग़ुबार में I
दीवानगी ने दिल को कहीं का नहीं रखा
खिलवत न ढूँढ़ ले ये कहीं बज़्मे-यार में I
जब सोज़ थे जवान तो ऐसा ख़ला न था
ग़ुंचे नहीं तो ज़ख़्म खिले थे बहार में ।।