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धीरे-धीरे उत्तर क्षितिज से / महादेवी वर्मा
Kavita Kosh से
धीरे-धीरे उत्तर क्षितिज से
आ वसन्त-रजनी!
तारकमय तव वेणी बन्धन
शीशफूल कर शशि का नूतन
रश्मि वलय सित घन-अवगुण्ठन;
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे
चितवन से अपनी।
पुलकती आ वसन्त-रजनी!
मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि।
अलि गुंजित पद्मों की किंकिणि
भर पदगति में अलस तरंगिणि;
तरल रजत की धार बहा दे
मृदु स्मित से सजनी!
विहँसती आ वसन्त-रजनी!
पुलकित स्वप्नों की रोमावलि
कर में हो स्मृतियों की अंजलि
मलयानिल का चल दुकूल अलि!
घिर छाया-सी श्याम, विश्व को
आ अभिसार बनी!
सकुचती आ वसन्त-रजनी!
सिहर-सिहर उठता सरिता-उर
खुल-खुल पड़ते सुमन सुधा-भर
मचल-मचल आते पद फिर-फिर;
सुन प्रिय की पदचाप हो गई
पुलकित यह अवनी।
सिहरती आ वसन्त-रजनी!