भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धीरे-धीरे जोड़ रही हूँ / सोनरूपा विशाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बिखर गई हूँ लेकिन ख़ुद को धीरे-धीरे जोड़ रही हूँ।
जिस पत्थर ने तोड़ा मुझको उसका भ्रम भी तोड़ रही हूँ।

जिसका दिल कमज़ोर बहुत है, उसको ज़ख्म मिले हैं ज़्यादा
शतरंजी जीवन में अक्सर मौन खड़ा है उसका प्यादा
इसीलिए अपने दिल की आवाज़ें सुनना छोड़ रही हूँ।

जो पीड़ा जीते रहते हैं उनका जीना भी मरना है,
मीठे पानी की नदिया को तेज़ाबी प्याला करना है
ये सच्चाई समझाकर ख़ुद को ख़ुद ही झिंझोड़ रही हूँ।

जिन पन्नों में सच्चे जज़्बे की झूठी तहरीरें हैं सब
जिन पन्नों में रिश्तों की ज़ंजीरों सी तस्वीरें हैं सब।
इन्हें न पलटूँगी जीवन भर ये पन्ने मैं मोड़ रही हूँ।