भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धीरे-धीरे दरकिनार होते / सुदीप बनर्जी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धीरे-धीरे दरकिनार होते हुए
मैं देख रहा हूँ एक निरर्थक नदी पर
वेगवान है, मेरे हमउम्र
तमाम दोस्तों की दिनचरयाएं
वे सब किनारे लगेंगे अगली सदी में

अगली सहस्त्राब्दि में
अपने नाती पोतों के नाती पोतों के
नाती पोतों के ज़माने तक
हरकत में रहने का दमख़म है उनमें

अपनी इनसानियत में ईश्वर के प्रतिस्पर्धी
उसको पराजित कर भी माफ़ कर देने की
विनम्र शक्ति उनकी जिजीविषा में

मैं और ज़माने का बाशिंदा
अपने दादों-परदादों के दादों-परदादों
के दादों-परदादों के पहले से प्रेतों का हमसाया

धीरे-धीरे लौटते हुए
माँ की कोख से होते हुए
अज़ल की ओर मुखातिब

वे वयस्क होंगे युगान्तरों के बाद
मैं कब का बुज़ुर्ग हुआ
आदमज़ाद के शाया होने से थोड़ा अव्वल।