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धीरे-धीरे / परमानंद श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
1.
धीरे-धीरे डूबता है दिन
धीरे-धीरे आती है रात
धीरे-धीरे चढ़ता है बुखार
जैसे प्यार का ज्वार
धीरे-धीरे आती है मृत्यु
धीरे-धीरे रुकती है ट्रेन
बेगूसराय स्टेशन पर
धीरे-धीरे आता है डाकिया
देता है ख़त सन्देश
धीरे-धीरे आदमी अकेला होता है
उम्र के अन्तिम पड़ाव पर
जब घन्टी बजती है फोन की
पर नहीं सुनाई देती
आते हैं एस०एम०एस०
पर वह पढ़ नहीं पाता
न जाँच पाता है, मिस्ड कॉल
मित्रों के
2.
धीरे-धीरे उठता है बाज़ार
टोकरियाँ माथे पर लिए
स्त्रियाँ टटोलती हैं अपनी थकी
देह का आलस्य
गिनती हैं पैसे
छोड़ती हैं उम्मीद
अकाल-कथा की
बीतेगा समय
धीरे-धीरे
जैसे सदियाँ बीतती हैं
हाथ बँधी घड़ी में