अपने देश की परिभाषा अब
धीरे धीरे बदल रही है।
हक पहले था करो खिलाफत
सत्ता के इस मनमानी की !
लेकिन अब तो नही रह गयी
सीमा कुछ बेईमानी की !
ताकतवर यूं हुई बुराई
कमी नजर आ जायेगी ।।
धर्म कभी जब राजनीति पर
अपना बर्चस्व बढ़ाती है !
बना अपाहिज लोकतन्त्र को
फिर मनमानी करवाती है !
मन्चो पर भी देखा अक्सर
नीयति सबकी फिसल रही है।।
मँहगाई छू रही गगन को
मुश्किल से हो रहा गुजारा !
कमर तोड़ दी पाँच साल मे
मिली चोट पर चोट दुबारा !
रोजगार छिन गया करोड़ो
बैठी आशा पिघल रही है।।