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धीरे धीरे / अर्चना अर्चन
Kavita Kosh से
वो आने लगे है इधर धीरे धीरे
दुआ कर रही है असर धीरे धीरे
मनाने में उनको बिखर जाएंगे हम
वो मानेंगे बेशक मगर धीरे धीरे
मुलाकात की कोइ सूरत निकालो
जुदाई भी है इक ज़हर धीरे धीरे
हमें कैद ना कर सका जब वो जालिम
दिए पंख सारे कतर धीरे धीरे
फसाना सुनाती रही सिसकियों में
जो शम्मा जली रात भर धीरे धीरे
अना दरमियां आ गई जब हमारे
मकां रह गया जो था घर, धीरे धीरे
पहेली न सुलझी कभी जिंदगी की
गई उम्र सारी गुज़र धीरे धीरे