भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धीरे धीरे / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धीरे-धीरे
घर करती जाती हैं
सम्पदाएँ
पोर-पोर
रग-रग और
स्पन्दन में भी।

भूल जाता है
रिश्ते आदमी

नहीं रह पाता
वह अपनी
माँ की कांख से
बँधा शिशु
बालक होने के बाद।