भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धीवरगीत-2 / राधावल्लभ त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देह केवल जा रही है आगे
चेतना बिखर-बिखर गई है
चेतना के भीतर
जीर्ण हो रही है कामना
कामना के भीतर
विकल्प
वे विकल्प बिखरकर पड़े रह गए हैं
इसी सागर के तट पर।

चंद्रभागा नदी की तरह है जीवन
रेत के ढूह में दबते जा रहे हैं अभाव
रस कहीं दबा रह गया है नीचे
नाव मेरी महासागर में थपेड़ों में टकराती रह गई है

फिर भी पतवार हाथ में है
लहरों से टकराती लगातार
रुका नहीं हूँ मैं।