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धुँआ (10) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
यह धुआं बहुत जालिम है
पहले डालता है, दरार दिलों में
फिर फैलाता है, हाथ अपने
करने को देश के टुकड़े-टुकड़े ।
आपको क्या परवाह इल्जाम की
न फिक्र है, तबाही की
बहता है तो बहे खून
बन नाले और नदियां ।
यह खून काम आयेगा
लिखने पंक्तियां इतिहास की ।
यह खून काम आयेगा
सिंचने क्यारियां गुलशन की ।
यह खून काम आयेगा
अपने ही बुराईयों को धोने के लिए ।
मगर वह भूल गया
अगर खून से ही गुनाह धुलते
इन्सान पानी क्यों पीता
वह शुरू कर देता पीना खून ।
अगर ऐसा ही होता
न होती जरूरत भगवान को जन्म लेने की
और न होती उत्पत्ति धर्म की
इसलिए समझ लो, ए मानव
गहराई इस जालिम धुएँ की ।