भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धुँआ (10) / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह धुआं बहुत जालिम है
पहले डालता है, दरार दिलों में
फिर फैलाता है, हाथ अपने
करने को देश के टुकड़े-टुकड़े ।

आपको क्या परवाह इल्जाम की
न फिक्र है, तबाही की
बहता है तो बहे खून
बन नाले और नदियां ।

यह खून काम आयेगा
लिखने पंक्तियां इतिहास की ।

यह खून काम आयेगा
सिंचने क्यारियां गुलशन की ।

यह खून काम आयेगा
अपने ही बुराईयों को धोने के लिए ।

मगर वह भूल गया
अगर खून से ही गुनाह धुलते
इन्सान पानी क्यों पीता
वह शुरू कर देता पीना खून ।

अगर ऐसा ही होता
न होती जरूरत भगवान को जन्म लेने की
और न होती उत्पत्ति धर्म की
इसलिए समझ लो, ए मानव
गहराई इस जालिम धुएँ की ।