भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुँआ (12) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
यह धुआं बहुत पीड़ा देय है
पूछ कर देखो उस अबला को
जिसका सुहाग यह निगल गया
और छोड़ गया उसे जिंदगी भर
तड़पने के लिए, कराहने के लिए
घुट-घुट कर दम तोड़ने के लिए ।
क्या वो जिन्होंने यह धुआं फैलाया है
कभी आयेंगे और देंगे उसे सहारा
और कहेंगे, उठो बहना, धीरज रखो
हम तुम्हें जिंदगी के अंधेरे से निकाल लेंगे ।
नही, वे कभी नहीं आयेंगे
क्योंकि जिस चिता में
इसका सुहाग जला है
वह चिता उनके लिए
एक लकड़ी से ज्यादा कुछ नहीं है ।
ऐसी लकड़ियों सें ही तो निकलता है
यह धुआं आतंकवाद का ।
पूछ कर देखो उस अबला से
कितना पीड़ा देय है
जब भारी होकर पड़ता है, यह धुआं ।