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धुँआ (12) / हरबिन्दर सिंह गिल

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यह धुआं बहुत पीड़ा देय है
पूछ कर देखो उस अबला को
जिसका सुहाग यह निगल गया
और छोड़ गया उसे जिंदगी भर
तड़पने के लिए, कराहने के लिए
घुट-घुट कर दम तोड़ने के लिए ।

क्या वो जिन्होंने यह धुआं फैलाया है
कभी आयेंगे और देंगे उसे सहारा
और कहेंगे, उठो बहना, धीरज रखो
हम तुम्हें जिंदगी के अंधेरे से निकाल लेंगे ।

नही, वे कभी नहीं आयेंगे
क्योंकि जिस चिता में
इसका सुहाग जला है
वह चिता उनके लिए
एक लकड़ी से ज्यादा कुछ नहीं है ।

ऐसी लकड़ियों सें ही तो निकलता है
यह धुआं आतंकवाद का ।

पूछ कर देखो उस अबला से
कितना पीड़ा देय है
जब भारी होकर पड़ता है, यह धुआं ।