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धुँआ (14) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
यह धुआं बहुत घनघोर है
कर देता है भरे दिन में
अंधेरा एक अमावस्या की रात का ।
वह रात भी होगी कम भयानक
जब चंद्रमा का होगा पूर्ण अंधेरा
परंतु इस धुएं के बादल ने
दिन में भी कर दी है, राहें सुनसान
गलियों में कुत्ते भी नहीं भौंकते हैं, डर के ।
रात के सन्नाटे में कम से कम
हवाओ के चलने की आवाज तो सुनाई देती है
यहां तो दिन में भी
देख इस घनघोर धुऐं को
स्वयं को अपनी श्वास की आवाज नही सुनती ।
क्या खबर लेगा वो दूसरों की
पूरा का पूरा शहर सो कर रह गया है
भय और संताप की निद्रा में ।
सामने पड़ी लाश है
और डर के मारे
सिसकियों की आवाज भी
रह गई है, गुम होकर
कहीं सुन न ले, विलाप वो शैतान
जो रहते है, छिपे इन घनघोर बादलो में ।