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धुँआ (17) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
यह धुआं बहुत चपल है
इसकी चाल पहचाननी बहुत कठिन है
देखकर रूख तट का
बदलता है, यह बहाव अपना ।
कहीं तो विनाश करता है, भरमार
गांव के गांव, शहर के शहर
आ जाते हैं, चपेट में इसकी
और कहीं टकरा के तटों से
रह जाता है, मार कर उछाल ।
परंतु फिर भी छोड़ जाता है, पीछे
निशान अपनी धार के बहाव के ।
धार जो वार करती है जब
छोड़ जाती है घाव कटाव के
घाव गहरे भी हो सकते हैं
और हो सकते हैं, खरोंच भर भी ।
घाव अपंग भी बना सकते हैं
और उतारकर तलवार हृदय में
फेंक सकते हैं, बनाकर लावारिस लाश भी ।
इसलिए समझने की कोशिश करें
इस धुऐं की चपलता को
और धार इस धुऐं के वार की ।