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धुँआ (31) / हरबिन्दर सिंह गिल

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मैं उन गोलीयों से
जिससे मुझे लगा
यहां धुँआ उठने वाला है
चुपचाप गुजर रहा था ।

लगा ऐसे कि
यहां तो उत्सव की तैयारियां
हो रही हैं
वीरता और बहादुरी की
कहानियां और गीत
गाए और सुनाए जा रहे हैं
धर्म गुरूओं का नाम लेकर
दुहाई ही दुहाई है ।
धार्मिक नारों का बोल बाला है

सोचकर, शायद
किसी देवता पर
बलि की भेंट चढ़ने वाली है
मैं चुपचाप गुजर गया ।