धुँआ (37) / हरबिन्दर सिंह गिल

मैं इस धुएँ के होते हुए
और ज्यादा नहीं लिख सकता
मानव के लिए, एक शब्द भी ।

मानव जो पलता रहा
आज तक मानवता के आंचल में
और खेलता रहा
आज तक मानवता की गोद में
और मानव जो जीता रहा
आज तक मानवता की धड़कन से ।

‘‘ धड़कन जो मानवता के हृदय में है
हृदय जो अंबर से भी विशाल है
और मानव उस विशाल हृदय की एक सांस है
एक धड़कन से ज्यादा और कुछ नहीं ’’
और वही मानव धड़कन आज चली है
मानवता की हृदय गति रोकने i

इसलिए में कुछ नहीं लिख सकता
सिवाय मानवता के, मानव के लिए ।

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