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धुँआ (38) / हरबिन्दर सिंह गिल

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इन धुएँ के बादलों से ऊपर उठकर
जीना ही, जीवन मूल्य होगा ।

हम व्यर्थ ही चाह कर लेते हैं
इस नाशवान शरीर को मूल्यवान बनाने की
जीवन मूल्यों को, धुएँ के व्यापारियों के हाथ
परंतु अंत में, हाथ कुछ आता नहीं
रह जाता है, यह मानव शरीर एक मुट्ठी राख ।

ठीक पूछा क्या मूल्यवान व्यक्ति
एक मुट्ठी राख नहीं बनता ।
हां वह भी एक मुट्ठी राख से
ज्यादा और कुछ नहीं, कुछ भी नहीं ।

यदि मानव, इस मुट्ठी भर राख की कीमत जान ले
इस धुएँ का उठना, अपने आप ही बंद हो जाएगा ।