धुँआ (39) / हरबिन्दर सिंह गिल

यह कवि स्वयं भी
अपने जन्म से पहले ही
शिकार हुआ था
धुएँ के बादल का ।

जब देश आजाद हो रहा था
इन धुएँ के बादलों से
और मेरे होने वाले माता पिता का
घर जलकर राख हो रहा था ।

यहां तक इस धुएँ की लपटों ने
छत के साये तक को भी जला दिया था
और रह गई सड़कें आशियां बनकर ।

मेरा भाग्य जो लिखा जा रहा था
विधाता के घर में
इस धुएँ से धूमिल हो रहा था
परंतु क्या मानते हम हार
इस धुएँ की बर्बरता से ।

यह धुँआ तो हमें
और मजबूत बना रहा था ।
बता दें इस धुएँ के बादलों को
ये भाग्य की लकीरें
किसी मिट्टी के ढेर पर नहीं बनी
ये मेहनत के पत्थर पर उभरी हैं
जो निश्चल रहता है, धुँआ कैसा भी हो ।

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