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धुँआ (4) / हरबिन्दर सिंह गिल
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यह धुएं बहुत बिषैला है
उगलता है, जहर पर जहर ।
फिर भी लोग समझ इसे अमृत,
पिये जा रहे हैं, पिये जाते रहेंगे
क्योंकि रखा है, इसे धर्म के लोटे में
और लोग तरसते हैं, इसकी एक-एक बूंद ।
जिसे पीकर शायद वो
ऐसा धर्म प्रहरी कहते हैं
होगे प्रस्थान स्वर्ग को
जहां उन्हें सत्कार से मंजूर किया जाएगा ।
परन्तु मनुष्य, क्यों भूल गया
जहर जिसे समझ अमृत पिया
दिखाने लगा है करतब अपने
और लगा है बदलने रंग आत्मा का
जिसे यमदूत ले जा रहे हैं
ले जाते-जाते वह काली पड़ने लगी है
जो हमेशा कभी दूध सी साफ रहती थी ।