धुँआ (6) / हरबिन्दर सिंह गिल
ये बादल धुएँ के बहुत कहर ढालते हैं
पूछ कर देखो जिन पर ये गिरते हैं
पता तो तब चलेगा, जब अपने पर गिरेंगे ।
फिर खड़े क्यों देख रहे हो तमाशा
जाकर सुनो कराह उस परिवार की
जिस पर गिरे हैं, ये बादल
और सुनो विलाप, अगर कोई बचा है, तो ।
पता चलेगा, कैसा क्रूर था वो क्षण
जिसने समय को बांधकर रख दिया
हमेशा के लिए, समाज की ठोकरें खाने के लिए ।
कैसा कलयुग आया है
मनुष्य ने बांध लिया है, समय को अपने में
और क्षण-प्रतीक्षण करता है प्रतीक्षा
कब इनका वार करूँ , धर्म की आड़ लेकर
अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए
और खुद लुप्त हो जाता है, इन्हीं बादलों में
और आनंद ले सके, उस नाश लीला की
बैठकर एकांत में, धुएँ की आड़ में ।
क्या यह धुआँ धर्म की श्वास है
क्या धर्म इसके बिना जिंदा नहीं रहेगा
या रूक जाएगी धड़कन धर्म की ।