भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धुँधले प्रतिबिंब / नईम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धुँधले प्रतिबिम्ब
और
काँपती लकीर।

पीले पन्नों को जो
मोड़ रहे,
भीड़ को अकेले में
छोड़ रहे,
धारा से कटे हुए उम्र के फ़क़ीर।

तीन पात ढाक के
लगाए हैं,
जागे तो, भूत ही
जगाए हैं;
पगड़ी से झाँक रहे हरण किए चीर।

नई फसल कौड़ी के
लेखे में,
गाड़ रहे अब भी उखड़े
खेमे;
सीने से चिपकाए टूटी तस्वीर।

धुँधले प्रतिबिम्ब
और काँपती लकीर।