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धुंध नदी पर / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
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धुंध नदी पर
और घाट पर
बैठा साधू एक अकेला
पता नहीं
कितने जन्मों के पाप-पुण्य
वह बाँच रहा है
नये वक्त ने सिरजे जो सुख
उसने उनका ताप सहा है
बरस-दर-बरस
देखा उसने
लाखघरों का चलता खेला
ठिठुर रही है नदी
हवा में अब भी लटका
धुआँ रात का
महानगर में देर-रात तक
चला तमाशा विश्वहाट का
उस जलसे से
उपजा अनरथ
प्रजाजनों ने जिसको झेला