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धुआँ-धुआँ है हवाएँ ,नदी की ख़ैर नहीं / मधु 'मधुमन'

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धुआँ-धुआँ है हवाएँ ,नदी की ख़ैर नहीं
अब ऐसे हाल में तो हम सभी की ख़ैर नहीं

मुनाफ़िकत से भरे इस जहान में ऐ दिल
तेरे ख़ुलूस , तेरी सादगी की ख़ैर नहीं

जहाँ में तुंद हवाओं का ज़ोर है हर सू
चमन में अब तो किसी भी कली की ख़ैर नहीं

क़दम-क़दम पर हवादिस खड़े हैं राहों में
हमारे शह्र में अब ज़िंदगी की ख़ैर नहीं

ग़ुलाम बन गया है हर कोई मशीनों का
हमें तो डर है कि अब आदमी की ख़ैर नहीं

है सिर्फ़ शोर-शराबा ही आज नग़मों में
नई सदी में सुख़न-परवरी की ख़ैर नहीं

किसी से कोई निभाने को ही नहीं राज़ी
बदलते दौर में शाइस्तगी की ख़ैर नहीं

अगर यही रही रफ़्तारे-ज़िंदगी ‘मधुमन ‘
तो फिर ये तय है कि जग में किसी की ख़ैर नहीं