धुआँ धुआँ आसमान / बाल गंगाधर 'बागी'
छाया धुआं है, अब भी मनुवाद का
इसमें फसना नहीं है, किसी काम का
वो सदियों की आंधी का, पैदा खुमार
बर्बाद गुलशन है, जिनसे हजार
दलितों की आंखों से बहता लहू
लुटी जिसकी अस्मत उसे क्या कहूँ
सागर की मौजों सा दलितों का दर्द
नहीं इनसे बच पाया कोई-बसर
कई गांव उजड़े कई बस्तियां
मिटी ऐसे ऐसे दलितों की तब हस्तियां
बहुतों के सर पे है खुला आसमां
वर्षा ठण्डी जुल्मों की गर्मियां
न तन पे था कपड़ा न कोई आस
सड़े मांस खाने पड़े कई रात
सड़ा मांस और बदबुओं का गुब्बार
दलित अस्मिता तब हुई शर्मसार
उन बस्तियों में था बदबू का वास
न खुशबुओं की कुछ आती थी आस
मेरे बाप को जब सवर्णों ने मारा
मेरे माँ व बहनों की इज्जत उतारा
छाती कटी जिस्म हुआ लहूलुहान
तब रोई थी बस्ती मेरी घमासान
लाठी उठाकर तब लोग दहाड़ेंगे
दौड़ा-दौड़ा के सवर्णों को मारे थे