भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुआँ बन-बन के उठते हैं हमारे ख़्वाब सीने से / सिया सचदेव
Kavita Kosh से
धुंआ बन बन के उठते हैं हमारे ख्वाब सीने से
परेशान हो गए ऐ ज़िन्दगी घुट घुट के जीने स
हमें तूफ़ान से टकरा के दो दो हाथ करने हैं
"जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से"
चले तो थे निकलने को, पलक पर थम गये आंसू
छुपाए हैं हज़ारों दर्द ये बेहद करीने से।
दुआ से आपको अपनी वो मालामाल कर देगा
लगाकर देखिए तो आप भी मुफलिस को सीने से
मुझे रोते हुए देखा, दिलासा यूँ दिया माँ ने
उतर आएगी आंगन में परी चुपचाप जीने से
अगर होता यही सच तो समंदर हम बहा देते
'सिया' होगा न कुछ हासिल कभी ये अश्क पीने से