भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुएँ में घुटता है दम किससे कहें / विजय किशोर मानव
Kavita Kosh से
धुएं में घुटता है दम किससे कहें
रोशनी इतनी है कम किससे कहें
शहर जलता है मगर लपटें नहीं
हवा इतनी कम है, हम किससे कहें
इस तरह बदली हैं तासीरें यहां
धूप भी जाती है जम किससे कहें
चीख़-चुप्पी का बसेरा हर गली में
नब्ज़ जब-तब जाय थम किससे कहें
क़हक़हों के बीच भी कुछ तैरता है
आंख हो जाती हैं नम किससे कहें
यूं तो हर चेहरा चटख रंग से रंगा है
आदमी मिलते हैं कम किससे कहें
हर दशहरे में बड़े पुतले जलाकर
सब जिया करते हैं भ्रम किससे कहें