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धुएँ में घुटता है दम किससे कहें / विजय किशोर मानव

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धुएं में घुटता है दम किससे कहें
रोशनी इतनी है कम किससे कहें

शहर जलता है मगर लपटें नहीं
हवा इतनी कम है, हम किससे कहें

इस तरह बदली हैं तासीरें यहां
धूप भी जाती है जम किससे कहें

चीख़-चुप्पी का बसेरा हर गली में
नब्ज़ जब-तब जाय थम किससे कहें

क़हक़हों के बीच भी कुछ तैरता है
आंख हो जाती हैं नम किससे कहें

यूं तो हर चेहरा चटख रंग से रंगा है
आदमी मिलते हैं कम किससे कहें

हर दशहरे में बड़े पुतले जलाकर
सब जिया करते हैं भ्रम किससे कहें