धुएँ / भारतेन्दु प्रताप सिंह
उगते सूरज की किरन से
चमकते
शहर के हर चौराहे से
होकर, हर दीवारों में
तैरते धुएँ...
क्यों फैलाते हो अपनी
छाया,
इस छोर से उस छोर तक
सतरंगा लिबास ओढ़े।
क्या तुम थोड़ा पारदर्शी नहीं हो सकते?
आंखों की पलको पर होने का सुख-सपना,
और
एक परिभाषित रूप-रंग आकृति के होने में,
शहर की सांस और धड़कन सरीखा एक सम्बंध है।
बिना हवा के भी,
माहौल में तैरते हुए
बदलते हर क्षण अपना स्वरूप,
आंसुओं को भी निचोड़ कर
छोड़ते हो,
पथरीली आंखों की अहसास
शहर के पास,
क्या तुम थोड़ा प्रसिद्ध नहीं हो सकते?
माना की डरते हो,
तेज हवाओं से
और नहीं दौड़ सकते
खुले, हरे-भरे मैदान,
पर
आग जलते, हर चूल्हे से
उठकर
गली के मोड़ से बंधकर
घर के कोने में ठुँसकर,
भागते
तपती भट्ठी से दूर
किस सुरक्षा-सुविधा-सफलता को
पाने...
क्या तुम थोड़ा साहसी नहीं हो सकते?
हे अग्नि-पुत्र
अपने पूरे जीवन, करते हो प्रयास
ढकने का
शहर के हर लैम्प-पोस्ट को,
सड़क के हर आलोकित
पग-पग को
धुंधला करने का,
क्या तुम थोड़ा नैतिक नहीं हो सकते?
शुरु तो करो,
थोड़ी अनैतिकता से ही सही,
जीने का सिलसिला
एक किरन चुरा कर,
सूरज के सतरंगी लिबास से
जिसे ओढ़ने का सपना,
तुम्हारा अपना है,
क्या सच से तुम्हें बहुत डर लगता है?