भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुपहली सुबह / नीरजा हेमेन्द्र
Kavita Kosh से
मैंने सोच लिया है अब
जब भी तुम याद आओगे/मुझे
मौसम के साथ,
हवाओं के साथ,
शरद् की ओस भीगी
धूपहली सुबह के साथ
या कमरे में शाम होते ही
मेरे कमजोर होने के साथ
या
आइने में अपना चेहरा
न देख पाने की
मेरी असमर्थता के साथ
जब भी याद आओगे तुम/मुझे
मैं तुम्हे भूल जाया करूँगी
और तब
मैं जानती हूँ
शाम को तुम कमरे की बत्ती
नही जलाओगे
और हफ्तों
शेव नही बनाओगे
तुम सोच रहे होगे/ मैं
मै ऐसा नही कर सकती हूँ
तुम्ही बताओ न!
मैं और क्या कर सकती हूँ
आज जब कि चीजों ने
कोहरा ओढ़ लिया है
और मैं!
वास्तविकता नही देख सकती।