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धूप, मिट्टी हवा को भूल गए / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
धूप, मिट्टी, हवा को भूल गए
बीज अपनी धरा को भूल गए
ज़िन्दगी की मरीचिकाओं में
लोग अपनी दिशा को भूल गए
पद प्रतिष्ठा ने इतना बौराया
पुत्र अपने पिता को भूल गए
जिसके जलने से ज्योति जन्मी है
दीप उस वर्तिका को भूल गए
अपनीमिट्टी की गन्ध भूले तो
लोग अपनी कला को भूल गए
इतने निर्भर हुए दवाओं पर
स्वास्थ्य की प्रार्थना को भूल गए
वोट की राजनीति में अन्धे
देश की एकता को भूल गए.