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धूप-बत्तियाँ / अज्ञेय

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ये तुम्हारे नाम की दो बत्तियाँ हैं धूप की।
डोरियाँ दो गन्ध की
जो न बोलें किन्तु तुम को छू सकें।

जो विदेही स्निग्ध बाँहों से तुम्हें वलयित किये रह जाएँ
क्या है और मेरे पास?

हाँ, आस :
मैं स्वयं तुम तक पहुँच सकता नहीं
पर भाव के कितने न जाने सेतु अनुक्षण बाँधता हूँ-
आस!

तुम तक
और तुम तक
और
तुम तक!

स्टॉकहोम, 23 जून, 1955