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धूप-2 / अरविन्द चतुर्वेद
Kavita Kosh से
मैं देख रहा था
सड़क पर
ऊँची इमारत के बाजू से
किसी तरह छलक कर
बमुश्किल उतरा
धूप का एक तिकोना टुकड़ा ।
इतने में
सिपाही का भारी-भरकम बूट
जो उस पर पड़ा
तो मैं सिहर गया भीतर तक
मुझे ठंड-सी लगी
मेरा शरीर काँप-सा गया