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धूप की क़िताब / रमेश रंजक

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सागर भर अन्धकार, नदी भर किरन
दो रूठे रंगों का साध कर मिलन
(कितनी बारीकी से
उतरा है
दिन)

मेज़ पर गिरी आ कर
धूप की क़िताब
महक गए परदों के
अनकढ़े गुलाब

केशों को बाँध गया केसरी रिबन ।

ख़ामोशी पिघल गई
बर्फ़ की तरह
लिपी-पुती-सी दिखी
कज्जली सतह

पर्त-पर्त कुहरे की हो गई हिरन ।