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धूप की ग़ज़ल / सुभाष वसिष्ठ

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शुरू हुई
दिन की हलचल
गए सभी
लोहे में ढल

देह दृष्टि
लिपट गई
ताज़े अख़बारों से
शब्द झुण्ड
निकल पड़े
खुलते बाज़ारों से

गुनता मन
धूप की ग़ज़ल

एक उम्र और घटी
तयशुदा सवालों की
बाँझ हुई सीपियाँ
टीसते उजालों की

चौराहा : माथे पर बल !