धूप की नदी / श्रीविलास सिंह
मैं कब से बैठा हूँ
अंधेरे के इस पहाड़ की
तलहटी में,
अभी अभी गुज़रे हैं इधर से
कुछ उदंड अश्वारोही
अपनी तलवारों पर हाथ फेरते
बेहद फूहड़ और भयानक हंसी के साथ।
मगर इस बात को तो
सदियाँ हो गयीं।
धुएँ के कई बादल
मरने वालों की चीखों पर सवार
इसी अंधेरे के पहाड़ में दफ़न हैं।
मैं अपनी प्यास की कुदाल से
खोद रहा हूँ
बरसों से अपनी इच्छाओं की रेत
फूट पड़े हैं मेरे चारों ओर
आग बरसाती धूप के सोते।
कई पैगम्बर यहीं मेरे पास ही
बैठ कर सुस्ताने के बाद
चले गए किसी अनजानी दिशा को
अपने कंधों पर अपनी सलीबें उठाये।
इसी तलहटी से
उठते रहे हैं कई इंकलाब
और रक्त की नदी पार करने के बाद
गुम हो गए हैं ध्वंस के बांझ रेगिस्तानों में,
उनके पीछे उग आए हैं
कुछ नए तानाशाह
कैक्टस की तरह।
इसी घाटी में रोशनी की किताबें
जल रहीं है धू-धू कर
और उनके जहरीले धुंए के नशे में मस्त
मेरी तमाम पीढ़ियाँ
जप रहीं है मंत्र
एक अनबूझी भाषा का
किसी गूंगे बहरे अदृश्य की
प्रार्थना में।
इसी पहाड़ के सामने वाली दलदल में
डूब कर मर गए हैं
बायीं और दायीं ओर से आने वाले
सत्य के तमाम अन्वेषक
जिन्होंने दावा किया था
सूरज का एक टुकड़ा तोड़ लाने का।
सब तरफ एक मरघट
उग आया है
सारे पैगम्बरों और
सत्य के अन्वेषकों को फूंकने के बाद,
सारी पवित्र किताबें सड़ चुकी हैं
रक्त में डूब कर,
सूरज कब का
उजाले को संभाले-संभाले अपने कंधों पर
धूप की नदी-सा बहने लगा है,
अंधेरे की तलहटी में
अभी भी गूंज रही हैं
आदमख़ोर अश्वारोहियों के
आने की आहट।