धूप के चंद टुकड़े / रेखा राजवंशी
मेरे कमरे की ज़मीन पर
बिछ जाते हैं
पंख-कटे कबूतर की तरह
दरवाज़े की दरारों से झाँकते
धूप के चंद टुकड़े ।
मेरे लूले हाथ
उन्हें पकड़ लेने के लिए
आगे बढ़ते हैं
और बस
शून्य में हिलते रहते हैं
खालीपन का एहसास लिए ।
कमरे में लगा हुआ पोस्टर
कील पर लटकी हुई पेंटिंग
सब कुछ मेरे इर्द-गिर्द घूम रहा है
रुक गए है तो बस मेरे पाँव
जो जकड़ गए हैं
अपनी ही बनाई हुई मान्यताओं से
झूठे विश्वासों से, थोथी परम्पराओं से
कि सब कुछ मेरी पहुँच से परे हैं ।
कैलेंडर के पन्नों से
कटते जा रहे हैं
दिन, तारीख़, सुबह और शाम
ख़ामोश, यंत्रचालित-सी आँखें
घड़ी के पेंडुलम के साथ
गिन रही हैं कुछ नाम ।
सुबह का सूरज
रात से भी ज़्यादा गहरा उठा है
और धूप के चंद टुकड़े
मेरे दरवाज़े की
दरारों से झाँकते-झाँकते
सिमटने लगे हैं ।