भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धूप को सर पर लिये चलता रहा / अनिरुद्ध सिन्हा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धूप को सर पर लिये चलता रहा
मैं ज़मीं के साथ ही जलता रहा

नफ़रतों के जहर पीकर दोस्तो
प्यार के साँचे में मैं ढलता रहा

टूटकर इक दिन बिखर जाऊँगा मैं
मेरे अन्दर खौफ़ ये पलता रहा

लौट आया आसमां को छूके मैं
जलनेवाला उम्र भर जलता रहा

लोग अपनी मंज़िलों को हो लिये
वो हमेशा हाथ ही मलता रहा